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खो अलग पहचान अपनी ,
बूँद निर्झरिणी बनी रे.
–
जब चली थी बादलों से,
छुद्रता का भान आया .
आगमन पर विश्व ने कब ,
कोई मंगल गान गाया .
किन्तु अन्तस् में लिए थी ,
विश्व-मंगल कामना जो .
भारती के भाल पर अक्षत,
तुहिन-कण बन जमी रे .
खो अलग पहचान अपनी ,
बूँद निर्झरिणी बनी रे.(१)
–
स्वयं स्वीकारा तमस को ,
रौशनी को त्याग पल में .
कौन फिर से हेर पाया ,
बुव गया जो भूमितल में .
किन्तु दृढ़-संकल्प उसका ,
आज बरगद बन खड़ा है .
पन्थिकों को मोह लेती ,
साँवली छाया घनी रे .
खो अलग पहचान अपनी ,
बूँद निर्झरिणी बनी रे.(२)
–
देव-मन्दिर भव्य कितना ,
भव्य कितनी देव-प्रतिमा .
शिखर सोने के चमकते ,
दीखती चंहुदिश मधुरिमा .
किन्तु शिल्पी जानता यह ,
सब बुलन्दी टिकी जिसपर .
विश्व की नजरों से ओझल ,
वह शिला नीचे जमी रे .
खो अलग पहचान अपनी ,
बूँद निर्झरिणी बनी रे.(३)
–
सूर्य पश्चिम पालने में ,
झूल कुछ पल सो गया जब .
पुत गयी कालिख गगन पर,
भूमि का दिल रो गया तब .
किन्तु सहसा झिलमिला कर
हँस उठे तारे हजारों .
झुक गयी गर्दन अमा की ,
गर्व से जो थी तनी रे .
खो अलग पहचान अपनी ,
बूँद निर्झरिणी बनी रे. (४)
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