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मुद्रा वरद द्वय हस्त सुशोभत,शूल व फूल पदम मन भावै।
ब्रह्मा की विष्णु की रुद्र की रूप जो,धर्म के रूप के आसन ध्यावै।
भाग बड़े हिमवान के कहिये, तात कहै जग मात बुलावै ।
डोलै जगत जाके भ्रू के विलास सों ,मैनवती ताकौं झूला झुलावै।
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उषा प्रभाती सुनाय व सूरज,प्रात-सुकालिक आर्ति उतारै।
जोगिनी सी तप जोग की लक्ष्य जि, माया को भेद को विज्ञ विचारै।
पाय सरन इन चरनन की ,शेष नहीं कछु वेद उचारै।
ध्यावै सदा शुचि मात कुमरिका, ब्रह्म कम्डल पद्म जो धारै।
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चक्र मणीपुर पीठ अधीश्वरि दशभुज कंचन वर्ण सुहावै।
लै शरणागत वत्सल की शरणागति भक्त भय व्याधि नसावै।
चंडी के घंटा की चंड धुनी इक ओर तो प्रेत पिशाच कँपावै।
साधक श्रोन में दूसरी ओर जि शांति सुधा रसधार गिरावै।
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ईसत हास लिए अधराम्बुज अष्टभुजी त्रयलोक रचाती।
सूर्य सुमंडल वासिनी विश्रुत ध्यावत जीवन दीप्त बनाती।
चक्र अनाहत पीठ अधीश्वरि साधक पंथ सुगम्य बनाती।
विश्व प्रसूतिका जीवन दायिका विश्व विधायिका अंब कहाती।
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